और ध्यान रखो, इतना जो विषाद दुनिया में दिखाई पड़ता है, इतना जो दुःख दिखाई पड़ता है, उसका अधिकतम कारण है, अपेक्षाएं। अपेक्षाएं हैं, तो आज नहीं कल जब अपेक्षाएं टूटेंगी तो प्राणों पर संकट के बादल घिर आएंगे।
"मेरी अमीर विधवा मौसी के बच्चे नहीं थे। मगर उनके पास धन खूब था। उन्हें कुत्ते पालने का शौक था। उनके घर में पांच सौ दस कुत्ते थे। मैंने जिंदगीभर धन पाने के लोभ में उन्हें खुश रखने की हर तरह से कोशिश की। उनके नापाक बदबूदार कुत्तों को खूब प्यार जताया, पागल कुत्तियों की पूछोंपर हाथ फेरा, खुजलीदार पिल्लों को उठाकर गले से लगाया। मेरी मौसी कल मर गयी।"—ढब्बूजी ने अपने दोस्त मुल्लानसरुद्दीन को बताया।
नसरुद्दीन ने उत्सुकता से पूछा—"अच्छा, तो वह वसीयत में तुम्हारे लिए क्या लिख गयी?"
ढब्बूजी ने रोते हुए बताया—"वे ही पांच सौ दस मरियल कुत्ते, कुत्तियां और पिल्ले!"
तुम क्या चाहते हो, अस्तित्व उसे वैसा पूरा नहीं करेगा। अस्तित्व जो चाहता है, तुम उससे राजी हो जाओ। दुःखी होने का रास्ता है : तुम अस्तित्व से मांग करो कि ऐसा होना चाहिए। और सुखी होने का रास्ता है कि जैसा हो, तुम अस्तित्व को धन्यवाद दे सको कि बड़ी कृपा है, मैं शुक्रगुजार! मैं आभारी, मैं अनुगृहीत!
ऐसे अतीत और भविष्य से, संत, मुक्त हो जाओ, तो ध्यान सुगमता से सध जाएगा। इन दोनों के बीच में ही ध्यान है। ध्यान यानी वर्तमान का क्षण सब कुछ है। पीछे भी सब झूठ, आगे भी सब झूठ। सत्य है अभी और यहीं। इस क्षण अगर तुम्हारे भीतर कोई विचार की तरंग न रह जाए, फिर कहां अहंकार है? फिर कहां हो तुम? फिर एक सन्नाटा है, एक अपूर्व सन्नाटा है! उसी सन्नाटे में आत्म—अनुभव है, निर्वाण है, मोक्ष है, समाधि है। उसी सन्नाटे में सच्चिदानंद का आगमन है। सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् के फूल उसी सन्नाटे में खिलते हैं। वही सन्नाटा वसंत है।
मैं नहीं कर सकूंगा। राह दे सकता हूं, चलना तुम्हें होगा। मैं तुम्हारे लिए नहीं चल सकता। बुद्ध ने कहा है : बुद्ध केवल मार्ग दे सकते हैं, इशारे दे सकते हैं। बुद्ध तो मील के पत्थर हैं, जिन पर तीर बना है कि इतना और चलो, इतने मील और चलो तो फलां जगह पहुंच जाओगे। न तो तुम्हें हाथ पकड़ कर जबर्दस्ती ले जाया जा सकता है। क्योंकि जो जबर्दस्ती आए, वह मुक्ति नहीं होगी। मुक्ति और जबर्दस्ती!
तुम्हें भेंट में भी नहीं दी जा सकती मुक्ति। क्योंकि भेंट की कोई कीमत करना ही नहीं जानता। कितनी चीजें तुम्हें भेंट में मिली हैं, तुमने कोई कीमत की? जीवन तुम्हें भेंट में मिला है, तुमने कभी परमात्मा को धन्यवाद दिया कि हे प्रभु, तेरा मैं अनुगृहीत हूं, क्योंकि तूने मुझे जीवन दिया? जीवन से और क्या मूल्यवान हो सकता है? नहीं, तुम्हारे भीतर कोई अनुग्रह नहीं उठा। उसने तुम्हें चैतन्य दिया है, तुमने अपने चैतन्य के लिए धन्यवाद दिया? नहीं, शिकायतें की होंगी, संदेह प्रकट किए होंगे, न अनुग्रह जगा, न श्रद्धा जगी। ऐसे ही तुम्हें अगर मोक्ष भी मिल जाए, तो तुम मोक्ष में भी शिकायतें करोगे कि आज धूप ज्यादा है, कि आज वर्षा हो गई, कि आज कपड़े सुखाने थे, कि आज यह करना था, कि आज वह करना था। तुम्हें मोक्ष भी अगर मिल जाए मुफ्त . . .परमात्मा ने सब दिया है, मोक्ष को बचा रखा है। वह तुम्हें खोजना है। ताकि तुम उसकी कीमत कर सको, उसका मूल्य कर सको।
परमात्मा ने तुम्हें सब देकर देख लिया कि तुम्हें जो भी दिया जाए, उसका तुम मूल्य नहीं करते। तुम अपने श्रम से जिसे पाते हो, उसका ही मूल्य करते हो। दो कौड़ी की चीजों का भी तुम मूल्य करते हो, अगर श्रम से मिलें। और अगर मुफ्त मिल जाएं तो तत्क्षण तुम्हारे मन में उनकी कीमत नहीं रह जाती। कीमत आंकने का तुम्हारे पास एक ही उपाय, एक ही मापदंड है और वह यह है कि कितना श्रम तुमने किया।
परमात्मा ने जो आखिरी बहुमूल्य चीज है, जो परम जीवन है, वह रोक रखा है। सब दे दिया है तुम्हें, उसे खोजने की सारी सुविधा दे दी है, उसे पाने का सामर्थ्य दे दिया है, उस तक पहुंचने की पूरी शक्ति दे दी है, मगर उस परम शिखर को छोड़ रखा है। यह शुभ किया है। यह उचित ही किया है। उसे तुम्हें ही पाना होगा। उसे कोई तुम्हें नहीं दे सकता। और कोई अगर कहे कि मैं तुम्हें दूंगा, तो तुम सावधान रहना, कोई धोखा है, कोई बेईमानी! जो ऐसा कहता है, तुम्हें लूटेगा। जो ऐसा कहता है, उससे बड़ा धोखेबाज इस दुनिया में कोई और नहीं।
सत्य को पाना होता है। मोक्ष को पाना होता है। ये चीजें हस्तांतरित नहीं होतीं। नहीं तो एक बुद्ध पर्याप्त था, सारी दुनिया को बुद्धत्व बांट देता।
राम दूवारे जो मरे--(प्रवचन--08)
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