तुम जैसे हो वैसे ही बनो। मान सम्मान की ज्यादा आकांक्षा अपमान देती है।

🌈 *तुम जैसे हो वैसे ही बनो। मान सम्मान की ज्यादा आकांक्षा अपमान देती है।*🌈

एक कौवा भागा जा रहा था। एक कोयल ने पूछा कि चाचा, कहां भागे जा रहे हो, बड़ी तेजी में हो! उस कौवे ने कहा कि मैं पूरब की तरफ जा रहा हूं। यहां के लोग बेहूदे हैं, नासमझ हैं, शास्त्रीय संगीत समझते ही नहीं।

मैं जब भी शास्त्रीय संगीत छेड़ता हूं, बस लोग भगाते हैं, ताली बजाने लगते हैं कि हटो, भागो! मैं पूरब की तरफ जा रहा हूं। मैंने सुना है कि पूरब के लोग शास्त्रीय संगीत के बड़े पारखी हैं। मैं तो अब पूरब में ही जाकर अपना गीत गाऊंगा।

कोयल ने कहा: चाचा, जैसी तुम्हारी मर्जी। जहां जाना हो जाओ, मगर खयाल रखो, लोग सब जगह एक जैसे हैं और तुम्हारा शास्त्रीय संगीत कहीं भी पसंद नहीं किया जायेगा। अच्छा तो यही हो कि तुम इसे संगीत समझना छोड़ो।

अच्छा तो यही हो कि तुम जैसे हो वैसा अपने को स्वीकार करो।
और ध्यान रखना, तुम जैसे हो जरूरी नहीं कि दूसरे तुम्हें वैसा स्वीकार करें। इसलिए जो सबसे बड़ा प्रश्न है साधक के लिये यही है कि जब दूसरे स्वीकार न करें तो क्या करें?

क्योंकि हमारी आम आकांक्षा तो यही होती है कि सब हमें स्वीकार करें। उसी आम आकांक्षा के कारण तो हम झूठे हो जाते हैं। क्योंकि लोग जिसको स्वीकार करते हैं हम वैसा ही अपने को दिखलाने लगते हैं। क्योंकि हमारे मन में बड़ी गहरी आकांक्षा है कि दूसरे सम्मान दें, सत्कार दें।

साक्षी वही है, जो कहता है: न मुझे सत्कार चाहिये न सम्मान चाहिये, न मुझे अपमान की चिंता है। मैं तो जैसा हूं, वैसा ही जीऊंगा। तुम सम्मान दो तो ठीक, तुम अपमान दो तो ठीक; वह तुम्हारा प्रश्न है, तुम्हारी समस्या है, मेरा उससे कुछ लेना-देना नहीं।

न मैं तुम्हारे सम्मान से प्रसन्न होऊंगा और न तुम्हारे अपमान से अप्रसन्न होऊंगा। मैं तुम्हारे सम्मान-असम्मान के सिक्कों को कोई मूल्य ही नहीं देता। तुम मुझे चालित न कर सकोगे। और तुम मेरे मालिक न हो सकोगे।

यही तो सिक्के हैं, जिनके आधार पर दूसरे हमारे मालिक हो जाते हैं। लोग कहते हैं: हम सम्मान देंगे, अगर हमारी बात मानकर चलो। स्वभावतः आखिर सम्मान लेना चाहते हो तो कुछ चुकाना भी पड़ेगा। और जब तुम उनकी बात मानकर चलोगे, झूठे हो जाओगे।

जिसे सहज होना है उसे इस बात को समझ ही लेना होगा कि न अब मुझे दूसरों से सम्मान चाहिये, न अपमान का भय होगा। अब तो मैं जैसा हूं, हूं; इसकी ही घोषणा करूंगा। इस सहज भाव से चित्त शुद्ध होता है।

            🌈 *ओशो* 🌈

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