सूफी फकीर
बायजीद ने तीन बार काबा की यात्रा की।

लोग सोचते थे
कि शायद अब चौथी बार भी करेगा।
लेकिन वर्षों बीत गए और बायजीद ने बात ही न उठाई।
उसके भक्तों में कई दफा सवाल उठा कि अब कब होगी चौथी यात्रा?

क्योंकि जितनी यात्रा, उतना पुण्य।
आखिर एक दिन भक्तों से न रहा गया—कई नए भक्त थे
जो पुरानी यात्राओं में सम्मिलित भी नहीं हुए थे,
उन्होंने कहा: हमारा भी कुछ खयाल करें; क्या आप हज को भूल ही गए;
काबा की अब याद ही नहीं करते? पहले तो तीन यात्राएं कीं, अब क्या हुआ?
और बायजीद कोई बहुत ज्यादा दूर नहीं रहता था काबा से,
इसलिए यात्रा आसान थी, यात्रा कभी भी की जा सकती थी।

बायजीद ने कहा,
अब तुमने पूछ ही लिया तो मुझे सच कहना ही पड़ेगा।

पहली दफा गया तो काबा दिखाई पड़ा।
दूसरी बार गया तो काबा का मालिक दिखाई पड़ा।
और तीसरी बार गया तो कोई भी दिखाई नहीं पड़ा।
न काबा, न काबा का मालिक। शून्य, निराकार।
तब से तो मैं जहां हूं, वहीं निराकार है।
तब से तो मैं जहां हूं, वहीं काबा है, वहीं काबा का मालिक है।

जो गिर गए मस्ती में, होश में;
जो रुक गए मस्ती में, होश में; जो ठहर गए मस्ती में,
होश में, पहुंच गए प्यारे के द्वार पर!

अब चलना कहां? उठना कहां? परमात्मा दूर नहीं है,
तुम जागरूक भाव से, मौन भाव से यहीं नाचो, परमात्मा यहीं है, अभी है।
परमात्मा कहीं और नहीं है, तुम जहां हो वहीं है। न काशी जाओ, न काबा।

नासमझ जाते हैं काशी और काबा।
समझदारों के पास काबा और काशी आ जाते हैं।
🌹🌹👁🙏👁🌹🌹💲
ओशो.....♡
*आज इतना ही...........*

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