पृथ्वी का इतिहास 4.6 बिलियन वर्ष पूर्व
पृथ्वी ग्रह के निर्माण से लेकर आज तक के इसके
विकास की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं और
बुनियादी चरणों का वर्णन करता है।[1]
प्राकृतिक विज्ञान की लगभग सभी शाखाओं
ने पृथ्वी के इतिहास की प्रमुख घटनाओं को
स्पष्ट करने में अपना योगदान दिया है। पृथ्वी
की आयु ब्रह्माण्ड की आयु की लगभग एक-
तिहाई है।[2] उस काल-खण्ड के दौरान व्यापक
भूगर्भीय तथा जैविक परिवर्तन हुए हैं।
हेडियन और आर्कियन (Hadean and Archaean)
मुख्य लेख : Hadean और Archaean
पृथ्वी के इतिहास का पहला युग, [1] जिसकी
शुरुआत लगभग 4.54 बिलियन वर्ष पूर्व (4.54
Ga) सौर-नीहारिका से हुई अभिवृद्धि के
द्वारा पृथ्वी के निर्माण के साथ हुई, को
हेडियन (Hadean) कहा जाता है।[3] यह
आर्कियन (Archaean) युग तक जारी रहा,
जिसकी शुरुआत 3.8 Ga में हुई. पृथ्वी पर आज तक
मिली सबसे पुरानी चट्टान की आयु 4.0 Ga
मापी गई है और कुछ चट्टानों में मिले
प्राचीनतम डेट्राइटल ज़र्कान कणों की आयु
लगभग 4.4 Ga आंकी गई है, [4] जो कि पृथ्वी
की सतह और स्वयं पृथ्वी की रचना के आस-पास
का काल-खण्ड है। चूंकि उस काल की बहुत
अधिक सामग्री सुरक्षित नहीं रखी गई है, अतः
हेडियन (Hadean) काल के बारे में बहुत कम
जानकारी प्राप्त है, लेकिन वैज्ञानिकों का
अनुमान है कि लगभग 4.53 Ga में,[nb 1]
प्रारंभिक सतह के निर्माण के शीघ्र बाद, एक
अधिक पुरातन-ग्रह का पुरातन-पृथ्वी पर
प्रभाव पड़ा, जिसने इसके आवरण व सतह के एक
भाग को अंतरिक्ष में उछाल दिया और चंद्रमा
का जन्म हुआ। [6][7][8]
हेडियन (Hadean) युग के दौरान, पृथ्वी की सतह
पर लगातार उल्कापात होता रहा और बड़ी
मात्रा में ऊष्मा के प्रवाह तथा भू-ऊष्मीय
अनुपात (geothermal gradient) के कारण
ज्वालामुखियों का विस्फोट भी भयंकर रहा
होगा. डेट्राइटल ज़र्कान कण, जिनकी आयु 4.4
Ga आंकी गई है, इस बात का प्रमाण प्रस्तुत
करते हैं कि द्रव जल के साथ उनका संपर्क हुआ
था, जिसे इस बात का प्रमाण माना जाता है
कि उस समय इस ग्रह पर महासागर या समुद्र
पहले से ही मौजूद थे। [4] अन्य आकाशीय
पिण्डों पर प्राप्त ज्वालामुखी-विवरों की
गणना के आधार पर यह अनुमान लगाया गया है
कि उल्का-पिण्डों के अत्यधिक प्रभाव वाला
एक काल-खण्ड, जिसे "लेट हेवी बॉम्बार्डमेन्ट
(Late Heavy Bombardment)" कहा जाता है,
का प्रारंभ लगभग 4.1 Ga में हुआ था और इसकी
समाप्ति हेडियन के अंत के साथ 3.8 Ga के आस-
पास हुई. [9]
आर्कियन युग के प्रारंभ तक, पृथ्वी पर्याप्त रूप
से ठंडी हो चुकी थी। आर्कियन के वातावरण,
जिसमें ऑक्सीजन तथा ओज़ोन परत मौजूद नहीं
थी, की रचना के कारण वर्तमान जीव-जंतुओं में
से अधिकांश का अस्तित्व असंभव रहा होता.
इसके बावजूद, ऐसा माना जाता है कि
आर्कियन युग के प्रारंभिक काल में ही
प्राथमिक जीवन की शुरुआत हो गई थी और कुछ
संभावित जीवाष्म की आयु लगभग 3.5 Ga
आंकी गई है।[10] हालांकि, कुछ शोधकर्ताओं
का अनुमान है कि जीवन की शुरुआत शायद
प्रारंभिक हेडियन काल के दौरान, लगभग 4.4
Ga पूर्व, हुई होगी और पृथ्वी की सतह के नीचे
हाइड्रोथर्मल छिद्रों में रहने के कारण वे
संभावित लेट हेवी बॉम्बार्डमेंट काल में उनका
अस्तित्व बच सका. [11]
सौर मंडल की उत्पत्ति
प्रोटोप्लेनेटरी डिस्क का एक कलाकार की
छाप.
मुख्य लेख : Formation and evolution of the
Solar System
सौर मंडल (जिसमें पृथ्वी भी शामिल है) का
निर्माण अंतरतारकीय धूल तथा गैस , जिसे सौर
नीहारिका कहा जाता है, के एक घूमते हुए
बादल से हुआ, जो कि आकाशगंगा के केंद्र का
चक्कर लगा रहा था। यह बिग बैंग 13.7 Ga के
कुछ ही समय बाद निर्मित हाइड्रोजन व
हीलियम तथा अधिनव तारों द्वारा उत्सर्जित
भारी तत्वों से मिलकर बना था। [12] लगभग
4.6 Ga में, संभवतः किसी निकटस्थ अधिनव
तारे की आक्रामक लहर के कारण सौर
निहारिका के सिकुड़ने की शुरुआत हुई थी। संभव
है कि इस तरह की किसी आक्रामक तरंग के
कारण ही नीहारिका के घूमने व कोणीय आवेग
प्राप्त करने की शुरुआत हुई हो. धीरे-धीरे जब
बादल इसकी घूर्णन-गति को बढ़ाता गया, तो
गुरुत्वाकर्षण तथा निष्क्रियता के कारण यह
एक सूक्ष्म-ग्रहीय चकरी के आकार में रूपांतरित
हो गया, जो कि इसके घूर्णन के अक्ष के लंबवत
थी। इसका अधिकांश भार इसके केंद्र में
एकत्रित हो गया और गर्म होने लगा, लेकिन
अन्य बड़े अवशेषों के कोणीय आवेग तथा टकराव
के कारण सूक्ष्म व्यतिक्रमों का निर्माण हुआ,
जिन्होंने एक ऐसे माध्यम की रचना की, जिसके
द्वारा कई किलोमीटर की लंबाई वाले सूक्ष्म-
ग्रहों का निर्माण प्रारंभ हुआ, जो कि
नीहारिका के केंद्र के चारों ओर घूमने लगे.
पदार्थों के गिरने, घूर्णन की गति में वृद्धि तथा
गुरुत्वाकर्षण के दबाव ने केंद्र में अत्यधिक गतिज
ऊर्जा का निर्माण किया। किसी अन्य
प्रक्रिया के माध्यम से एक ऐसी गति, जो कि
इस निर्माण को मुक्त कर पाने में सक्षम हो, पर
उस ऊर्जा को किसी अन्य स्थान पर
स्थानांतरित कर पाने में इसकी अक्षमता के
परिणामस्वरूप चकरी का केंद्र गर्म होने लगा.
अंततः हीलियम में हाइड्रोजन के नाभिकीय
गलन की शुरुआत हुई और अंततः, संकुचन के बाद
एक टी टौरी तारे (T Tauri Star) के जलने से
सूर्य का निर्माण हुआ। इसी बीच, गुरुत्वाकर्षण
के कारण जब पदार्थ नये सूर्य की गुरुत्वाकर्षण
सीमाओं के बाहर पूर्व में बाधित वस्तुओं के
चारों ओर घनीभूत होने लगा, तो धूल के कण और
शेष सूक्ष्म-ग्रहीय चकरी छल्लों में पृथक होना
शुरु हो गई। समय के साथ-साथ बड़े खण्ड एक-दूसरे
से टकराये और बड़े पदार्थों का निर्माण हुआ,
जो अंततः सूक्ष्म-ग्रह बन गये। [13] इसमें केंद्र से
लगभग 150 मिलियन किलोमीटर की दूरी पर
स्थित एक संग्रह भी शामिल था: पृथ्वी. इस
ग्रह की रचना (1% अनिश्चितता की सीमा के
भीतर) लगभग 4.54 बिलियन वर्ष पूर्व हुई [1] और
इसका अधिकांश भाग 10-20 मिलियन वर्षों
के भीतर पूरा हुआ। [14] नवनिर्मित टी टौरी
तारे की सौर वायु ने चकरी के उस अधिकांश
पदार्थ को हटा दिया, जो बड़े पिण्डों के रूप में
घनीभूत नहीं हुआ था।
कम्प्यूटर सिम्यूलेशन यह दर्शाते हैं कि एक
सूक्ष्म-ग्रहीय चकरी से ऐसे पार्थिव ग्रहों का
निर्माण किया जा सकता है, जिनके बीच की
दूरी हमारे सौर-मण्डल में स्थित ग्रहों के बीच
की दूरी के बराबर हो. [15] अब व्यापक रूप से
स्वीकार की जाने वाली नीहारिका की
अवधारणा के अनुसार जिस प्रक्रिया से सौर-
मण्डल के ग्रहों का उदय हुआ, वही प्रक्रिया
ब्रह्माण्ड में बनने वाले सभी नये तारों के चारों
ओर अभिवृद्धि चकरियों का निर्माण करती है,
जिनमें से कुछ तारों से ग्रहों का निर्माण
होता है।[16]
पृथ्वी के केंद्र तथा पहले वातावरण की उत्पत्ति
इन्हें भी देखें: Planetary differentiation
पुरातन-पृथ्वी का विकास अभिवृद्धि से तब तक
होता रहा, जब तक कि सूक्ष्म-ग्रह का आंतरिक
भाग पर्याप्त रूप से इतना गर्म नहीं हो गया कि
भारी, लौह- धातुओं को पिघला सके. ऐसे द्रव
धातु, जिनके घनत्व अब उच्चतर हो चुका था,
पृथ्वी के भार के केंद्र में एकत्रित होने लगे. इस
तथाकथित लौह प्रलय के परिणामस्वरूप एक
पुरातन आवरण तथा एक (धातु का) केंद्र पृथ्वी के
निर्माण के केवल 10 मिलियन वर्षों में ही पृथक
हो गये, जिससे पृथ्वी की स्तरीय संरचना बनी
और पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र का निर्माण हुआ।
पुरातन-ग्रह पर पदार्थों के संचयन के दौरान,
गैसीय सिलिका के एक बादल ने अवश्य ही
पृथ्वी को घेर लिया होगा, जो बाद में इसकी
सतह पर ठोस चट्टानों के रूप में घनीभूत हो गया।
अब इस ग्रह के आस-पास सौर-नीहारिका के
प्रकाशीय (एटमोफाइल) तत्वों, जिनमें से
अधिकांश हाइड्रोजन व हीलियम से बने थे, का
एक प्रारंभिक वातावरण शेष रह गया, लेकिन
सौर-वायु तथा पृथ्वी की उष्मा ने इस
वातावरण को दूर हटा दिया होगा.
जब पृथ्वी की वर्तमान त्रिज्या में लगभग 40%
की वृद्धि हुई तो इसमें परिवर्तन हुआ और
गुरुत्वाकर्षण ने वातावरण को रोककर रखा,
जिसमें पानी भी शामिल था।
विशाल संघात अवधारणा (The giant impact
hypothesis)
मुख्य आलेख: चंद्रमा की उत्पत्ति एवं विकास
तथा विशाल संघात अवधारणा
पृथ्वी का अपेक्षाकृत बड़ा प्राकृतिक उपग्रह,
चंद्रमा, अद्वितीय है।[nb 2] अपोलो कार्यक्रम
के दौरान, चंद्रमा की सतह से चट्टानों के टुकड़े
पृथ्वी पर लाए गए। इन चट्टानों की
रेडियोमेट्रिक डेटिंग से यह पता चला है कि
चंद्रमा की आयु 4527 ± 10 मिलियन वर्ष है,
[17] जो कि सौर मंडल के अन्य पिण्डों से
लगभग 30 से 55 मिलियन वर्ष कम है।[18] (नये
प्रमाणों से यह संकेत मिलता है कि चंद्रमा का
निर्माण शायद और भी बाद में, सौर मण्डल के
प्रारंभ के 4.48±0.02 Ga, या 70–110 Ma बाद
हुआ होगा. [5] एक अन्य उल्लेखनीय विशेषता
चंद्रमा का अपेक्षाकृत कम घनत्व है, जिसका
अर्थ अवश्य ही यह होना चाहिये कि इसमें एक
बड़ा धातु का केंद्र नहीं है, जैसा कि सौर-
मण्डल के आकाशीय पिण्डों में होता है। चंद्रमा
की रचना ऐसे पदार्थों से हुई है, जिनकी पृथ्वी
के आवरण व ऊपरी सतह, पृथ्वी के केंद्र के बिना,
से बहुत अधिक समानता है। इससे विशाल प्रभाव
अवधारणा का जन्म हुआ है, जिसके अनुसार एक
प्राचीन-ग्रह के साथ पुरातन-पृथ्वी के एक
विशाल संघात के दौरान पुरातन-पृथ्वी तथा उस
पर संघात करने वाले उस ग्रह की सतह पर हुए
विस्फोट के द्वारा निकले पदार्थ से चंद्रमा
की रचना हुई. [19][8]
ऐसा माना जाता है कि वह संघातकारी ग्रह,
जिसे कभी-कभी थेइया (Theia) भी कहा
जाता है, आकार में वर्तमान मंगल ग्रह से थोड़ा
छोटा रहा होगा. संभव है कि उसका निर्माण
सूर्य व पृथ्वी से 150 मिलियन किलोमीटर दूर,
उनके चौथे या पांचवे लैग्रेन्जियन बिंदु
(Lagrangian point) पर पदार्थ के संचयन के
द्वारा हुआ हो. शायद प्रारंभ में उसकी कक्षा
स्थिर रही होगी, लेकिन पदार्थ के संचयन के
कारण जब थेइया का भार बढ़ने लगा, तो वह
असंतुलित हो गई होगी. लैग्रेन्जियन बिंदु के
चारों ओर थेइया की घूर्णन-कक्षा बढ़ती गई
और अंततः लगभग 4.533 Ga में वह पृथ्वी से
टकरा गया। [7][nb 1] मॉडल यह दर्शाते हैं कि
जब इस आकार का एक संघातकारी ग्रह एक
निम्न कोण पर तथा अपेक्षाकृत धीमी गति
(8-20 किमी/सेकंड) से पुरातन-पृथ्वी से
टकराया, तो पुरातन-पृथ्वी तथा प्रभावकारी
ग्रह की भीतरी परत व बाहरी आवरणों से
निकला अधिकांश पदार्थ अंतरिक्ष में उछल
गया, जहां इसमें से अधिकांश पृथ्वी के चारों
ओर स्थित कक्षा में बना रहा. अंततः इसी
पदार्थ ने चंद्रमा की रचना की. हालांकि,
संघातकारी ग्रह के धातु-सदृश तत्व पृथ्वी के
तत्व के साथ मिलकर इसकी सतह के नीचे चले गए,
जिससे चंद्रमा धातु-सदृश तत्वों से वंचित रह
गया। [20] इस प्रकार विशाल संघात अवधारणा
चंद्रमा की असामान्य संरचना को स्पष्ट करती
है।[21] संभव है कि पृथ्वी के चारों ओर स्थित
कक्षा में उत्सर्जित पदार्थ दो सप्ताहों में ही
एक पिण्ड के रूप में घनीभूत हो गया हो. अपने
स्वयं के गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में, यह उत्सर्जित
पदार्थ एक अधिक वृत्ताकार पिण्ड में बदल
गया: चंद्रमा. [22]
रेडियोमेट्रिक गणना यह दर्शाती है कि पृथ्वी
का अस्तित्व इस संघात के कम से कम 10
मिलियन वर्ष पूर्व से ही था, जो कि पृथ्वी के
प्रारंभिक आवरण व आंतरिक परत के बीच विभेद
के लिये पर्याप्त अवधि है। इसके बाद, जब संघात
हुआ, तो केवल ऊपरी आवरण के पदार्थ का ही
उत्सर्जन हुआ, तथा पृथ्वी के आंतरिक आवरण में
स्थित भारी साइडरोफाइल तत्व इससे अछूते ही
रहे.
युवा पृथ्वी के लिये इस संघात के कुछ परिणाम
बहुत महत्वपूर्ण थे। इससे ऊर्जा की एक बड़ी
मात्रा निकली, जिससे पृथ्वी व चंद्रमा दोनों
ही पूरी तरह पिघल गए। इस संघात के तुरंत बाद,
पृथ्वी का आवरण अत्यधिक संवाहक था, इसकी
सतह मैग्मा के एक बड़े महासागर में बदल गई थी।
इस संघात के कारण ग्रह का पहला वातावरण
अवश्य ही पूरी तरह नष्ट हो गया होगा. [23] यह
भी माना जाता है कि इस संघात के कारण
पृथ्वी के अक्ष में भी परिवर्तन हो गया व इसमें
23.5° का अक्षीय झुकाव उत्पन्न हुआ, जो कि
पृथ्वी पर मौसम के बदलाव के लिये ज़िम्मेदार है
(ग्रह की उत्पत्तियों के एक सरल मॉडल का
अक्षीय झुकाव 0° रहा होता और इसमें कोई
मौसम नहीं रहे होते). इसने पृथ्वी के घूमने की
गति भी बढ़ा दी होती.
महासागरों और वातावरण की उत्पत्ति
चूंकि विशाल संघात के तुरंत बाद पृथ्वी
वातावरण-विहीन हो गई थी, अतः यह शीघ्र
ठंडी हुई होगी. 150 मिलियन वर्षों के भीतर
ही, बेसाल्ट की रचना वाली एक ठोस सतह
अवश्य ही निर्मित हुई होगी. वर्तमान में मौजूद
फेल्सिक महाद्वीपीय परत तब तक अस्तित्व में
नहीं आई थी। पृथ्वी के भीतर, आगे विभेद केवल
तभी शुरु हो सकता था, जब ऊपरी परत कम से
कम आंशिक रूप से पुनः ठोस बन गई हो. इसके
बावजूद, प्रारंभिक आर्कियन (लगभग 3.0 Ga) में
ऊपरी सतह वर्तमान की तुलना में बहुत अधिक
गर्म, संभवतः 1600 °C के लगभग, थी।
इस ऊपरी परत से भाप निकली और
ज्वालामुखियों द्वारा और अधिक गैसों का
उत्सर्जन किया गया, जिससे दूसरे वातावरण
का निर्माण पूरा हुआ। उल्का के टकरावों के
कारण अतिरिक्त पानी आयात हुआ, संभवतः
बृहस्पति के गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव के अंतर्गत
आने वाले क्षुद्रग्रहों की बाहरी पट्टी से
उत्सर्जित क्षुद्रग्रहों से.
केवल ज्वालामुखीय घटनाओं तथा गैसों के
विघटन से पृथ्वी पर जल की इतनी बड़ी मात्रा
का निर्माण कभी भी नहीं किया जा सकता
था। ऐसा माना जाता है कि टकराने वाले
धूमकेतुओं में बर्फ थी, जिनसे जल प्राप्त हुआ। [24]
:130-132 हालांकि वर्तमान में अधिकांश
धूमकेतू कक्षा में सूर्य से नेपच्यून से भी अधिक
दूरी पर हैं, लेकिन कम्प्यूटर सिम्यूलेशन यह दर्शाते
हैं कि मूलतः वे सौर मण्डल के आंतरिक भागों में
अधिक आम थे। हालांकि, पृथ्वी पर स्थित
अधिकांश जल इससे टकराने वाले छोटे पुरातन-
ग्रहों से व्युत्पन्न किया गया था, जिनकी
तुलना बाहरी ग्रहों के वर्तमान छोटे बर्फीले
चंद्रमाओं से की जा सकती है।[25] इन पदार्थों
की टक्कर से भौमिक ग्रहों ( बुध , शुक्र , पृथ्वी
तथा मंगल) पर जल, कार्बन डाइआक्साइड ,
मीथेन , अमोनिया , नाइट्रोजन व अन्य
वाष्पशील पदार्थों में वृद्धि हुई होगी. यदि
पृथ्वी पर उपस्थित समस्त जल केवल धूमकेतुओं से
व्युत्पन्न था, तो इस सिद्धांत का समर्थन करने
के लिये धूमकेतुओं के लाखों संघातों की
आवश्यकता हुई होती. कम्प्यूटर सिम्यूलेशन यह
दर्शाते हैं कि यह कोई अविवेकपूर्ण संख्या नहीं
है।[24] :131
ग्रह के ठंडे होते जाने पर, बादलों का निर्माण
हुआ। वर्षा से महासागर बने. हालिया प्रमाण
सूचित करते हैं कि 4.2 या उससे भी पूर्व 4.4 Ga
तक महासागरों का निर्माण शुरु हो गया
होगा. किसी भी स्थिति में, आर्कियन युग के
प्रारंभ तक पृथ्वी पहले से ही महासागरों से
ढंकी हुई थी। संभवतः इस नए वातावरण में जल-
वाष्प, कार्बन डाइआक्साइड , नाइट्रोजन तथा
कुछ मात्रा में अन्य गैसें मौजूद थीं। चूंकि सूर्य
का उत्पादन वर्तमान मात्रा का केवल 70%
था, अतः इस बात की संभावना सबसे अधिक है
कि वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों की बड़ी
मात्राओं ने सतह पर मौजूद जल को जमने से
रोका. [26] मुक्त आक्सीजन सतह पर हाइड्रोजन
या खनिजों के साथ बंधी हुई रही होगी.
ज्वालामुखीय गतिविधियां तीव्र थीं और
पराबैंगनी विकिरण के प्रवेश को रोकने के लिये
ओज़ोन परत के अभाव में, सतह पर इसका बाहुल्य
रहा होगा.
[[चित्र:|लेक थेटिस के तट पर स्त्रोमातोलितेस
लिथीफिड स्ट्रोमैटोलाइट्स (पश्चिमी
ऑस्ट्रेलिया).स्ट्रोमेटोलाईट का निर्माण
साइनोबैक्टीरिया या क्लोरोफाईटा जैसे एक
कोशीय जीवों की कालोनियों द्वारा
किया जाता है। शैवाल की ये कालोनियां
तलछटी के कणों को फंसा लेती हैं और इस
प्रकार तलछटी में स्ट्रोमेटोलाईट की परतों का
निर्माण करती हैं। आर्कियन स्ट्रोमेटोलाईट
पृथ्वी पर जीवन के पहले प्रत्यक्ष जीवाश्म
निशान हैं, भले ही उनके भीतर बहुत थोड़ी
जीवाश्मीकृत कोशिकाएं पाई गई है। इसी
प्रकार आर्कियन और प्रोटरोज़ोइक महासागर
ऐल्गल मैट्स से भरा हो सकता था।]]
प्रारंभिक महाद्वीप
आवरण संवहन (Mantle convection), वर्तमान
प्लेट टेक्टोनिक्स को संचालित करने वाली
प्रक्रिया, केंद्र से पृथ्वी की सतह तक उष्मा के
प्रवाह का परिणाम है। इसमें मध्य-महासागरीय
मेड़ों पर सख़्त टेक्टोनिक प्लेटों का निर्माण
शामिल है। सब्डक्शन क्षेत्रों (subduction
zones) पर ऊपरी आवरण में सब्डक्शन के द्वारा
ये प्लेटें नष्ट हो जाती हैं। हेडियन तथा आर्कियन
युगों के दौरान पृथ्वी का भीतरी भाग अधिक
गर्म था, अतः ऊपरी सतह पर कन्वेक्शन अवश्य
ही तीव्रतर रहा होगा. जब वर्तमान प्लेट
टेक्टोनिक्स जैसी कोई प्रक्रिया हुई होगी,
तो यह इसकी गति और भी अधिक बढ़ गई
होगी. अधिकांश भूगर्भशास्रियों का मानना
है कि हेडियन व आर्कियन के दौरान, सब्डक्शन
ज़ोन अधिक आम थे और इस कारण टेक्टोनिक
प्लेटें आकार में छोटी थीं।
प्रारंभिक परत, जिसका निर्माण तब हुआ था,
जब पृथ्वी की सतह पहली बार सख़्त हुई, हेडियन
प्लेट टेक्टोनिक के इस तीव्र संयोजन तथा लेट
हेवी बॉम्बार्डमेन्ट के गहन प्रभाव से पूरी तरह
मिट गई। हालांकि, ऐसा माना जाता है कि
वर्तमान महासागरीय परत की तरह ही यह परत
बेसाल्ट से मिलकर बनी हुई होगी क्योंकि
अभी तक इसमें बहुत कम परिवर्तन हुआ है।
महाद्वीपीय परत, जो कि निचली परत में
आंशिक गलन के दौरान हल्के तत्वों के विभेदन
का एक उत्पाद थी, के पहले बड़े खण्ड हेडियन के
अंतिम काल में, 4.0 Ga के लगभग बने. इन शुरुआती
छोटे महाद्वीपों के अवशेषों को क्रेटन कहा
जाता है। हेडियन युग के अंतिम भाग व आर्कियन
युग के प्रारंभिक भाग के ये खण्डों ने उस सतह
का निर्माण किया, जिस पर वर्तमान
महाद्वीपों का विकास हुआ।
पृथ्वी पर प्राचीनतम चट्टानें कनाडा के नॉर्थ
अमेरिकन क्रेटन पर प्राप्त हुई हैं। वे लगभग 4.0
Ga की टोनालाइट चट्टानें हैं। उनमें उच्च
तापमान के द्वारा रूपांतरण के चिह्न दिखाई
देते हैं, लेकिन साथ ही उनमें तलछटी में स्थित कण
भी मिलते हैं, जो कि जल के द्वारा परिवहन के
दौरान हुए घिसाव के कारण वृत्ताकार हो गए
हैं, जिससे यह पता चलता है कि उस समय भी
नदियों व सागरों का अस्तित्व था [24]
क्रेटन मुख्यतः दो एकान्तरिक प्रकार की
भौगोलिक संरचनाओं (terranes) से मिलकर बने
होते हैं। पहली तथाकथित ग्रीनस्टोन
पट्टिकाएं हैं, जो कि निम्न गुणवत्ता वाली
रूपांतरित तलछटी चट्टानों से बनती हैं। ये
"ग्रीनस्टोन" सब्डक्शन ज़ोन के ऊपर, वर्तमान में
महासागरीय खाई में मिलने वाली तलछटी के
समान होते हैं। यही कारण है कि कभी-कभी
ग्रीनस्टोन को आर्कियन के दौरान सब्डक्शन के
एक प्रमाण के रूप में देखा जाता है। दूसरा
प्रकार रेतीली मैग्मेटिक चट्टानों का एक
मिश्रण होता है। ये चट्टानें अधिकांशतः
टोनालाइट, ट्रोन्डजेमाइट या
ग्रैनोडायोराइट होती हैं, जो कि ग्रेनाइट
जैसी बनावट वाली चट्टानें हैं (अतः ऐसी
भौगोलिक संरचनाओं को टीटीजी-टेरेन कहा
जाता है). टीटीजी-मिश्रणों को पहली
महाद्वीपीय परत के अवशेषों के रूप में देखा
जाता है, जिनका निर्माण बेसाल्ट में आंशिक
गलन के कारण हुआ। ग्रीनस्टोन पट्टिकाओं
तथा टीटीजी-मिश्रणों के बीच एकान्तरण की
व्याख्या एक टेक्टोनिक परिस्थिति के रूप में
की जाती है, जिसमें छोटे पुरातन-महाद्वीप
सब्डक्टिंग ज़ोनों के एक संपूर्ण नेटवर्क के द्वारा
पृथक किये गये थे।
जीवन की उत्पत्ति
लगभग सभी ज्ञात जीवों में डी
ऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड ही रेप्लिकेटर के
रूप में कार्य कृहै। डीएनए अधिक मूल रेप्लिकेटर से
बहुत अधिक जटिल है और इसकी प्रतिकृति
सिस्टम अत्यधिक विस्तृत रहे हैं।
मुख्य लेख : Abiogenesis
जीवन की उत्पत्ति का विवरण अज्ञात है,
लेकिन बुनियादी स्थापित किये जा चुके हैं।
जीवन की उत्पत्ति को लेकर दो विचारधारायें
प्रचलित हैं। एक यह सुझाव देती है कि जैविक
घटक अंतरिक्ष से पृथ्वी पर आए ("पैन्सपर्मिया"
देखें), जबकि दूसरी का तर्क है कि उनकी
उत्पत्ति पृथ्वी पर ही हुई. इसके बावजूद, दोनों
ही विचारधारायें इस बारे में एक जैसी
कार्यविधि का सुझाव देती हैं कि प्रारंभ में
जीवन की उत्पत्ति कैसे हुई. [27]
यदि जीवन की उत्पत्ति पृथ्वी पर हुई थी, तो
इस घटना का समय अत्यधिक कल्पना आधारित
है-संभवतः इसकी उत्पत्ति 4 Ga के लगभग हुई.
[28] यह संभव है कि उसी अवधि के दौरान उच्च
ऊर्जा वाले क्षुद्रग्रहों की बमबारी के द्वारा
महासागरों के लगातार होते निर्माण और
विनाश के कारण जीवन एक से अधिक बार
उत्पन्न व नष्ट हुआ हो. [4]
प्रारंभिक पृथ्वी के ऊर्जाशील रसायन-शास्र
में, एक अणु ने स्वयं की प्रतिलिपियां बनाने की
क्षमता प्राप्त कर ली-एक प्रतिलिपिकार.
(अधिक सही रूप में, इसने उन रासायनिक
प्रतिक्रियाओं को प्रोत्साहित किया, जो
स्वयं की प्रतिलिपि उत्पन्न करतीं थीं।)
प्रतिलिपि सदैव ही सटीक नहीं होती थी:
कुछ प्रतिलिपियां अपने अभिभावकों से
थोड़ी-सी भिन्न हुआ करतीं थीं।
यदि परिवर्तन अणु की प्रतिलिपिकरण की
क्षमता को नष्ट कर देता था, तो वह अणु कोई
प्रतिलिपि उत्पन्न नहीं कर सकता था और वह
रेखा "समाप्त" हो जाती थी। वहीं दूसरी ओर,
कुछ दुर्लभ परिवर्तन अणु की प्रतिलिपि
क्षमता को बेहतर या तीव्र बना सकते थे: उन
"नस्लों" की संख्या बहुत अधिक बढ़ जाती थी
और वे "सफल" हो जातीं थीं। यह अजैव पदार्थ
पर उत्पत्ति का एक प्रारंभिक उदाहरण है।
पदार्थ तथा अणुओं में उपस्थित अंतर ने एक
निम्नतर ऊर्जा अवस्था की बढ़ने के प्रणालियों
के वैश्विक स्वभाव के साथ संयोजित होकर
प्राकृतिक चयन की एक प्रारंभिक विधि की
अनुमति दी. जब कच्चे पदार्थों ("भोजन") का
विकल्प समाप्त हो जाता था, तो नस्लें
विभिन्न पदार्थों का प्रयोग कर सकतीं थीं,
या संभवतः अन्य नस्लों के विकास को रोककर
उनके संसाधनों को चुरा सकतीं थीं और अधिक
व्यापक बन सकतीं थीं। [29] :563-578
पहले प्रतिलिपिकार का स्वभाव अज्ञात है
क्योंकि इसका कार्य लंबे समय से जीवन के
वर्तमान प्रतिलिपिकार, डीएनए (DNA)
द्वारा ले लिया गया था। विभिन्न मॉडल
प्रस्तावित किये गये हैं, जो कि इस बात की
व्याख्या करते हैं कि कोई प्रतिलिपिकार
किस प्रकार विकसित हुआ होगा. विभिन्न
प्रतिलिपिकारों पर विचार किया गया है,
जिनमें आधुनिक प्रोटीन , न्यूक्लिक अम्ल ,
फॉस्फोलिपिड, क्रिस्टल, [30] या यहां तक
कि क्वांटम प्रणालियों जैसे जैविक रसायन
शामिल हैं।[31] अभी तक इस बात के निर्धारण
का कोई तरीका उपलब्ध नहीं है कि क्या इनमें
से कोई भी मॉडल पृथ्वी पर जीवन की
उत्पत्ति के साथ निकट संबंध रखता है।
पुराने सिद्धांतों में से एक, वह सिद्धांत जिस पर
कुछ विस्तार में कार्य किया गया है, इस बात
के एक उदाहरण के रूप में कार्य करेगा कि यह कैसे
हुआ होगा. ज्वालामुखी, आकाशीय बिजली
तथा पराबैंगनी विकिरण रासायनिक
प्रतिक्रियाओं को संचालित करने में सहायक
हो सकते हैं, जिनसे मीथेन व अमोनिया जैसे सरल
यौगिकों से अधिक जटिल अणु उत्पन्न किये जा
सकते हैं।[32] :38 इनमें से अनेक सरलतर जैविक
यौगिक थे, जिनमें न्यूक्लियोबेस व अमीनो
अम्ल भी शामिल हैं, जो कि जीवन के आधार-
खण्ड हैं। जैसे-जैसे इस "जैविक सूप" की मात्रा व
सघनता बढ़ती गई, विभिन्न अणुओं के बीच
पारस्परिक क्रिया होने लगी. कभी-कभी
इसके परिणामस्वरूप अधिक जटिल अणु प्राप्त
होते थे-शायद मिट्टी ने जैविक पदार्थ को
एकत्रित व घनीभूत करने के लिये एक ढांचा
प्रदान किया हो. [32] :39
कुछ अणुओं ने रासायनिक प्रतिक्रिया की
गति बढ़ाने में सहायता की होगी. यह सब एक
लंबे समय तक जारी रहा, प्रतिक्रियाएं
यादृच्छिक रूप से होती रहीं, जब तक कि संयोग
से एक प्रतिलिपिकार अणु उत्पन्न नहीं हो
गया। किसी भी स्थिति में, किसी न किसी
बिंदु पर प्रतिलिपिकार का कार्य डीएनए
(DNA) ने अपने हाथों में ले लिया; सभी ज्ञात
जीव (कुछ विषाणुओं व सूक्ष्म जीवाणुओं के
अलावा) लगभग एक समान तरीके से अपने
प्रतिलिपिकार के रूप में डीएनए (DNA) का
प्रयोग करते हैं ( जेनेटिक कोड देखें).
कोशिकीय झिल्ली का एक छोटा अनुभाग.यह
आधुनिक सेल झिल्ली अधिक मूल सरल
फॉस्फोलिपिड द्वि-स्तरीय sara (दो पूंछ के
साथ छोटे नीले क्षेत्रों) से अधिक परिष्कृत दूर
है। प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट झिल्ली के
माध्यम से सामग्री के गुज़रने के विनियमन में और
वातावरण के लिए प्रतिक्रिया में विभिन्न
कार्य करते हैं।
आधुनिक जीवन का प्रतिलिपिकारक पदार्थ
एक कोशिकीय झिल्ली के भीतर रखा होता
है। प्रतिलिपिकार की उत्पत्ति के बजाय
कोशिकीय झिल्ली की उत्पत्ति को समझना
अधिक सरल है क्योंकि एक कोशिकीय
झिल्ली फॉस्फोलिपिड अणुओं से मिलकर बनी
होती है, जो जल में रखे जाने पर अक्सर तुरंत ही
दो परतों का निर्माण करते हैं। कुछ विशिष्ट
शर्तों के अधीन, ऐसे अनेक वृत्त बनाये जा सकते हैं
("बुलबुलों का सिद्धांत (The Bubble Theory)"
देखें). [32] :40
प्रचलित सिद्धांत यह है कि झिल्ली का
निर्माण प्रतिलिपिकार के बाद हुआ, जो कि
तब तक शायद अपनी प्रतिलिपिकारक
सामग्री व अन्य जैविक अणुओं के साथ आरएनए
(RNA) था (आरएनए (RNA) विश्व अवधारणा).
शुरुआती प्रोटोसेल का आकार बहुत अधिक बढ़
जाने पर शायद उनमें विस्फोट हो जाया करता
होगा; इनसे छितरी हुई सामग्री शायद
"बुलबुलों" के रूप में पुनः एकत्रित हो जाती
होगी. प्रोटीन , जो कि झिल्ली को स्थिरता
प्रदान करते थे, या जो बाद में सामान्य
विभाजन में सहायता करते थे, ने उन कोशिका
रेखाओं के प्रसरण को प्रोत्साहित किया
होगा.
आरएनए (RNA) एक शुरुआती प्रतिलिपिकार हो
सकता है क्योंकि यह आनुवांशिक जानकारी
को संचित रखने का कार्य व प्रतिक्रियाओं
को उत्प्रेरित करने का कार्य दोनों कर सकता
है। किसी न किसी बिंदु पर आरएनए (RNA) से
आनुवांशिक संचय की भूमिका डीएनए (DNA) ने
ले ली और एन्ज़ाइम नामक प्रोटीन ने उत्प्रेरक
की भूमिका ग्रहण कर ली, जिससे आरएनए
(RNA) के पास केवल सूचना का स्थानांतरण
करने, प्रोटीनों का संश्लेषण करने व इस
प्रक्रिया का नियमन करने का ही कार्य बचा।
यह विश्वास बढ़ता जा रहा है कि ये प्रारंभिक
कोशिकाएं शायद समुद्र के नीचे स्थित
ज्वालामुखीय छिद्रों, जिन्हें ब्लैक स्मोकर्स
(black smokers) कहा जाता है, [32] :42 से या
यहां तक कि शायद गहराई में स्थिति गर्म
चट्टानों के साथ उत्पन्न हुईं. [29] :580
ऐसा माना जाता है कि प्रारंभिक
कोशिकाओं की एक बहुतायत में से केवल एक
श्रेणी ही शेष बची रह सकी. उत्पत्ति-संबंधी
वर्तमान प्रमाण यह संकेत देते हैं कि अंतिम
वैश्विक आम पूर्वज प्रारंभिक आर्कियन युग के
दौरान, मोटे तौर पर शायद 3.5 Ga या उसके
पूर्व, रहते थे। [33][34] यह "लुका (Luca)"
कोशिका आज पृथ्वी पर पाये जाने वाले समस्त
जीवों का पूर्वज है। यह शायद एक प्रोकेरियोट
(Prokaryote) था, जिसमें कोशिकीय झिल्ली
तथा संभवतः कुछ राइबोज़ोम थे, लेकिन उसमें
कोई केंद्र या झिल्ली से बंधा हुए कोई जैव-
भाग (Organelles) जैसे माइटोकांड्रिया या
क्लोरोप्लास्ट मौजूद नहीं थे।
सभी आधुनिक कोशिकाओं की तरह, यह भी
अपने जैविक कोड के रूप में डीएनए (DNA) का,
सूचना के स्थानांतरण व प्रोटीन संश्लेषण के
लिये आरएनए (RNA) का, तथा प्रतिक्रियाओं
को उत्प्रेरित करने के लिये एंज़ाइम का प्रयोग
करता था। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि
अंतिम आम वैश्विक पूर्वज कोई एकल जीव नहीं
था, बल्कि वह पार्श्विक जीन स्थानांतरण में
जीनों का आदान-प्रदान करने वाले जीवों की
एक जनसंख्या थी। [33]
प्रोटेरोज़ोइक युग
प्रोटेरोज़ोइक (Proterozoic) पृथ्वी के इतिहास
का वह युग है, जो 2.5 Ga से 542 Ma तक चला.
इसी अवधि में क्रेटन वर्तमान आकार के
महाद्वीपों के रूप में विकसित हुए. पहली बार
आधुनिक अर्थों में प्लेट टेक्टोनिक्स की घटना
हुई. ऑक्सीजन से परिपूर्ण एक वातावरण की
ओर परिवर्तन एक निर्णायक विकास था।
प्रोकेरियोट (prokaryotes) से यूकेरियोट
(eukaryote) और बहुकोशीय रूपों में जीवन का
विकास हुआ। प्रोटेरोज़ोइक काल के दौरान
दो भीषण हिम-युग देखें गये, जिन्हें स्नोबॉल
अर्थ (Snowball Earths) कहा जाता है। लगभग
600 Ma में, अंतिम स्नोबॉल अर्थ की समाप्ति
के बाद, पृथ्वी पर जीवन की गति तीव्र हुई.
लगभग 580 Ma में, कैम्ब्रियन विस्फोट के साथ
एडियाकारा बायोटा (Ediacara biota) की
शुरुआत हुई.
ऑक्सीजन क्रांति
मुख्य लेख : Oxygen catastrophe
सूर्य की ऊर्जा का काम में लाने से पृथ्वी पर
जीवन में कई प्रमुख बदलाव हो जाते हैं।
भूगर्भिक समय के माध्यम से वायुमंडलीय
ऑक्सीजन के अनुमानित आंशिक दबाव की
श्रेणी को ग्राफ दिखा रहा है [64]
3.15 गा मूरिज़ ग्रुप से एक पट्टित लोहा बनाने
का निर्माण, बार्बर्टन ग्रीनस्टोन बेल्ट,
दक्षिण अफ्रीका.लाल परतें उन अवधियों को
बताती हैं, जब ऑक्सीजन उपलब्ध था, ग्रे परतें
ऑक्सीजन की अनुपस्थिति वाली
परिस्थितियों में बनीं.
शुरुआती कोशिकाएं शायद विषमपोषणज
(Heterotrophs) थीं और वे कच्चे पदार्थ तथा
ऊर्जा के एक स्रोत के रूप में चारों ओर के जैविक
अणुओं (जिनमें अन्य कोशिकाओं के अणु भी
शामिल थे) का प्रयोग करती थी। [29]
:564-566 जैसे-जैसे भोजन की आपूर्ति कम
होती गई, कुछ कोशिकाओं में एक नई रणनीति
विकसित हुई. मुक्त रूप से उपलब्ध जैविक अणुओं
की समाप्त होती मात्राओं पर निर्भर रहने के
बजाय, इन कोशिकाओं ने ऊर्ज के स्रोत के रूप में
सूर्य-प्रकाश को अपना लिया। हालांकि
अनुमानों में अंतर है, लेकिन लगभग 3 Ga तक,
शायद वर्तमान ऑक्सीजन-युक्त संश्लेषण जैसा
कुछ न कुछ विकसित हो गया था, जिसने सूर्य
कि ऊर्जा न केवल स्वपोषणजों (Autotrophs) के
लिये, बल्कि उन्हें खाने वाले विषमपोषणजों के
लिये भी उपलब्ध करवाई. [35][36] इस प्रकार
का संश्लेषण, जो कि तब तक सबसे आम बन चुका
था, कच्चे माल के रूप में प्रचुर मात्रा में मौजूद
कार्बन डाइआक्साइड और पानी का उपयोग
करता थ और सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा के साथ,
ऊर्जा की प्रचुरता वाले जैविक अणु
( कार्बोहाइड्रेट ) उत्पन्न करता था।
इसके अलावा, इस संश्लेषण के एक अपशिष्ट
उत्पाद के रूप में ऑक्सीजन उतसर्जित किया
जाता था। [37] सबसे पहले, यह चूना-पत्थर,
लोहा और अन्य खनिजों के साथ बंधा. इस काल
की भूगर्भीय परतों में मिलने वाले लौह-
आक्साइड की प्रचुर मात्रा वाले स्तरों में इस
बात के पर्याप्त प्रमाण मौजूद हैं। ऑक्सीजन के
साथ खनिजों की प्रतिक्रिया के कारण
महासागरों का रंग हरा हो गया होगा. जब
उजागर होने वाले खनिजों में से तुरंत
प्रतिक्रिया करने वाले अधिकांश खनिजों का
ऑक्सीकरण हो गया, तो अंततः ऑक्सीजन
वातावरण में एकत्र होने लगी. हालांकि प्रत्येक
कोशिका ऑक्सीजन की केवल एक छोटी-सी
मात्रा ही उत्पन्न करती थी, लेकिन एक बहुत
बड़ी अवधि तक अनेक कोशिकाओं के संयुक्त
चयापचय ने पृथ्वी के वातावरण को इसकी
वर्तमान स्थिति में रूपांतरित कर दिया. [32]
:50-51 ऑक्सीजन-उत्पादक जैव रूपों के सबसे
प्राचीन उदाहरणों में जीवाष्म स्ट्रोमेटोलाइट
शामिल हैं। यह पृथ्वी के तीसरा वातावरण था।
अंतर्गामी पराबैंगनी विकिरण के प्रोत्साहन से
कुछ ऑक्सीजन ओज़ोन में परिवर्तित हुआ, जो
कि वातावरण के ऊपरी भाग में एक परत में एकत्र
हो गई। ओज़ोन परत ने पराबैंगनी विकिरण की
एक बड़ी मात्रा, जो कि किसी समय
वातावरण को भेद लेती थी को अवशोषित कर
लिया और यह आज भी ऐसा करती है। इससे
कोशिकाओं को महासागरों की सतह पर
अंततः भूमि पर कालोनियां बनाने का मौका
मिला: [38] ओज़ोन परत के बिना, सतह पर
बमबारी करने वाले पराबैंगनी विकिरण ने
उजागर हुई कोशिकाओं में उत्परिवर्तन के
अरक्षणीय स्तर उत्पन्न कर दिये होते.
प्रकाश संश्लेषण का एक अन्य, मुख्य तथा विश्व
को बदल देने वाला प्रभाव था। ऑक्सीजन
विषाक्त था; "ऑक्सीजन प्रलय" के नाम से
जानी जाने वाली घटना में इसका स्तर बढ़ जाने
पर संभवतः पृथ्वी पर मौजूद अधिकांश जीव
समाप्त हो गए।[38] प्रतिरोधी जीव बच गए और
पनपने लगे और इनमें से कुछ ने चयापचय में वृद्धि
करने के लिये ऑक्सीजन का प्रयोग करने व उसी
भोजन से अधिक ऊर्जा प्राप्त करने की क्षमता
विकसित कर ली.
स्नोबॉल अर्थ और ओजोन परत की उत्पत्ति
प्रचुर ऑक्सीजन वाले वातावरण के कारण
जीवन के लिये दो मुख्य लाभ थे। अपने चयापचय
के लिये ऑक्सीजन का प्रयोग न करने वाले
जीव, जैसे अवायुजीवीय जीवाणु, किण्वन को
अपने चयापचय का आधार बनाते हैं। ऑक्सीजन
की प्रचुरता श्वसन को संभव बनाती है, जो
किण्वन की तुलना में जीवन के लिये एक बहुत
अधिक प्रभावी ऊर्जा स्रोत है। प्रचुर
ऑक्सीजन वाले वातावरण का दूसरा लाभ यह है
कि ऑक्सीजन उच्चतर वातावरण में ओज़ोन का
निर्माण करती है, जिससे पृथ्वी की ओज़ोन
परत का आविर्भाव होता है। ओज़ोन परत
पृथ्वी की सतह को जीवन के लिये हानिकारक
पराबैंगनी विकिरण से बचाती है। ओज़ोन की
इस परत के बिना, बाद में अधिक जटिल जीवन
का विकास शायद असंभव रहा होता. [24]
:219-220
सूर्य के स्वाभाविक विकास ने आर्कियन व
प्रोटेरोज़ोइक युगों के दौरान इसे क्रमशः
अधिक चमकीला बना दिया; सूर्य की चमक एक
करोड़ वर्षों में 6% बढ़ जाती है।[24] :165 इसके
परिणामस्वरूप, प्रोटेरोज़ोइक युग में पृथ्वी को
सूर्य से अधिक उष्मा प्राप्त होने लगी.
हालांकि, इससे पृथ्वी अधिक गर्म नहीं हुई. इसके
बजाय, भूगर्भीय रिकॉर्ड यह दर्शाते हुए लगते हैं
कि प्रोटेरोज़ोइक काल के प्रारंभिक दौर में यह
नाटकीय ढंग से ठंडी हुई. सभी क्रेटन्स पर पाये
जाने वाले हिमनदीय भण्डार दर्शाते हैं कि 2.3
Ga के आस-पास, पृथ्वी पर पहला हिम-युग आया
(मेक्गैन्यीन हिम-युग). [39] कुछ वैज्ञानिकों के
अनुसार यह तथा इसके बाद प्रोटेरोज़ोइक हिम
युग इतने अधिक भयंकर थे कि इनके कारण ग्रह
ध्रुवों से लेकर विषुवत् तक पूरी तरह जम गया था,
इस अवधारणा को स्नोबॉल अर्थ कहा जाता
है। सभी भूगर्भशास्री इस परिदृश्य से सहमत नहीं
हैं और प्राचीन, आर्कियन हिम युगों का
अनुमान भी लगाया गया है, लेकिन हिम युग 2.3
Ga ऐसी पहली घटना है, जिसके लिये प्रमाण
को व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है।
2.3 Ga के हिम युग का प्रत्यक्ष कारण शायद
वातावरण में ऑक्सीजन की बढ़ी हुई मात्रा
रही होगी, जिससे वातावरण में मीथेन (CH 4 )
की मात्रा घट गई। मीथेन एक शक्तिशाली
ग्रीनहाउस गैस है, लेकिन ऑक्सीजन इसके साथ
प्रतिक्रिया करके CO 2 का निर्माण करता है,
जो कि एक कम प्रभावी ग्रीनहाउस गैस है।[24]
:172 जब मुक्त ऑक्सीजन वातावरण में उपलब्ध
हो गई, तो मीथेन का घनत्व नाटकीय रूप से घट
गया होगा, जो कि सूर्य की ओर से आती
उष्मा के बढ़ते प्रवाह का सामना करने के लिये
पर्याप्त था।
THANKS FOR VISITING
पृथ्वी
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