‘अनुभव करो कि सृजन के शुद्ध गुण तुम्हारे स्तनों में प्रवेश करके सूक्ष्म रूप धारण कर रहे है।’
इससे पहले कि इस विधि में प्रवेश करूं, कुछ महत्वपूर्ण बातें।
शिव पार्वती से, देवी से, अपनी संगिनी से बात कर रहे है। इसलिए यह विधि विशेषत: स्त्रियों के लिए है। कुछ बातें समझने जैसी है। एक: पुरूष देह और स्त्री देह एक जैसी है; लेकिन फिर भी उनमें कई भेद है। और उनका भेद है। और उनका भेद एक दूसरे का परिपूरक है। पुरूष देह में जो नकारात्मक है, स्त्री देह में वही सकारात्मक होगा; और स्त्री देह जो सकारात्मक है, वह पुरूष देह में नकारात्मक होगा।
यही कारण है कि जब वे दोनों गहन संभोग में मिलते है तो एक इकाई बन जाते है। ऋणात्मक धनात्मक से मिलता है। धनात्मक ऋणात्मक से मिलता है। और दोनों एक हो जाते है। एक विद्युत वर्तुल बन जाते है। इसीलिए तो यौन में इतना आकर्षण है। यह आकर्षण इसीलिए है। आधुनिक मनुष्य बहुत स्वछंद हो गया है। कि अश्लील फिल्में और साहित्य इसका कारण है। इसका कारण बहुत गहरा है जागतिक है।
यह आकर्षण इसलिए है क्योंकि पुरूष और स्त्री दोनों ही अधूरे है। और जो भी अधूरा है उसके पार जाना, पूर्ण होना अस्तित्व की स्वाभाविक प्रवृति है। पूर्णता की और गति करने की प्रवृति परम नियमों में से एक है। जहां भी तुम्हें लगता है कि कुछ कमी है, तुम उसे भरना चाहते हो, पूरा करना चाहते हो। प्रकृति किसी भी तरह के अधूरे पन को नहीं पसंद करती। पुरूष भी अधूरा है, स्त्री भी अधूरी है। और वे पूर्णता का केवल एक ही क्षण पा सकते है। जब उनका विद्युत वर्तुल एक हो जाए, जब दोनों विलीन हो जाएं।
इसीलिए तो सभी भाषाओं में प्रेम और प्रार्थना दोनों बड़े महत्वपूर्ण है। प्रेम में तुम किसी व्यक्ति के साथ एक हो जाते हो। और प्रार्थना में तुम समष्टि के साथ एक हो जाते हो। जहां तक आंतरिक प्रक्रिया का सवाल है, प्रेम और प्रार्थना समान है।
पुरूष और स्त्री देह समान है। लेकिन उनके ऋणात्मक और धनात्मक ध्रुव भिन्न है। जब बच्चा मां के गर्भ में होता है तो मैं सोचता हूं कम से कम छ: सप्ताह के लिए वह मध्य स्थिति में रहता है। न तो वह पुरूष होता है न स्त्री ही, उसका एक और झुकाव जरूर होता है, लेकिन फिर भी शरीर अभी मध्य में ही होता है। फिर छ: सप्ताह बाद शरीर या तो स्त्री का हो जाता है। या पुरूष का। यदि शरीर स्त्री का है तो काम ऊर्जा का ध्रुवस्तनों के निकल होगा। यह उसका धनात्मक ध्रुव होगा क्योंकि स्त्री की योनि ऋणात्मक ध्रुव है। यदि बच्चा नर है तो काम केंद्र, शिश्न उसका धनात्मक ध्रुव होगा और स्तन ऋणात्मक होते हे। स्त्री के शरीर में शिश्न का प्रतिरूप क्लाइटोरिस होता है। लेकिन यह निष्क्रय है। पुरूष के स्तनों की भांति ही स्त्री का क्लाइटोरिस भी निष्क्रय है।
शरीर शास्त्री ये प्रश्न उठाते रहते है। कि पुरूष के शरीर में स्तन क्यों होते है। जब कि उनकी कोई आवश्यकता नहीं दिखाई देती है। क्योंकि पुरूष को बच्चे को दूध तो पिलाना नहीं है। फिर उनकी क्या आवश्यकता है। वे ऋणात्मक ध्रुव है। इसलिए तो पुरूष के मन में स्त्री के स्तनों की और इतना आकर्षण है। वे धनात्मक ध्रुव है। इतने काव्य, साहित्य, चित्र,मूर्तियां सब कुछ स्त्री के स्तनों से जुड़े है। ऐसा लगता है जैस पुरूष को स्त्री के पूरे शरीर की अपेक्षा उसके स्तनों में अधिक रस है। और यह कोई नई बात नहीं है। गुफाओं में मिले प्राचीनतम चित्र भी स्तनों के ही है। स्तन उनमें महत्वपूर्ण है। बाकी का सारा शरीर ऐसा मालूम पड़ता है कि जैसे स्तनों के चारों और बनाया गया हो। स्तन आधार भूत है।
यह विधि स्त्रियों के लिए है। क्योंकि स्तन उनके धनात्मक ध्रुव है। और जहां तक योनि का प्रश्न है वह करीब-करीब संवेदन रहित है। स्तन उसके सबसे संवेदनशील अंग है। और स्त्री देह की सारी सृजन क्षमता स्तनों के आस-पास है।
यही कारण है कि हिंदू कहते है कि जबतक स्त्री मां नहीं बन जाती, वह तृप्त नहीं होती। पुरूष के लिए यह बात सत्य नहीं है। कोई नहीं कहेगा कि पुरूष जब तक पिता न बन जाए तृप्त नहीं होगा। पिता होना तो मात्र एक संयोग है। कोई पिता हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है। यह कोई बहुत आधारभूत सवाल नहीं है। एक पुरूष बिना पिता बने रह सकता है। और उसका कुछ न खोये। लेकिन बिना मां बने स्त्री कुछ खो देती है। क्योंकि उसकी पूरी सृजनात्मकता, उसकी पूरी प्रक्रिया तभी जागती है। जब वह मां बन जाती है। जब उसके स्तन उसके अस्तित्व के केंद्र बन जाते है। तब वह पूर्ण होती है। और वह स्तनों तक नहीं पहुंच सकती यदि उसे पुकारने वाला कोई बच्चा न हो।
तो पुरूष स्त्रियों से विवाह करते है ताकि उन्हें पत्नियाँ मिल सके, और स्त्रियां पुरूषों से विवाह करती है ताकि वे मां बन सकें। इसलिए नहीं कि उन्हें पति मिल सके। उनका पूरा का पूरा मौलिक रुझान ही एक बच्चा पाने में है जो उनके स्त्रीत्व को पुकारें।
तो वास्तव में सभी पति भयभीत रहते है, क्योंकि जैसे ही बच्चा पैदा होता है वे स्त्री के आकर्षण की परिधि पर आ जाते है। बच्चा केंद्र हो जाता है। इसलिए पिता हमेशा ईर्ष्या करते है, क्योंकि बच्चा बीच में आ जाता है। और स्त्री अब बच्चे के पिता की उपेक्षा बच्चे में अधिक उत्सुक हो जाती है। पुरूष गौण हो जाता है। जीने के लिए उपयोगी, परंतु अनावश्यक। अब मूलभूत आवश्यकता पूर्ण हो गई।
पश्चिम में बच्चों को सीधे स्तन से दूध न पिलाने का फैशन हो गया है। यह बहुत खतरनाक है। क्योंकि इसका अर्थ यह हुआ कि स्त्री कभी अपनी सृजनात्मकता के केंद्र पर नहीं पहुंच सकेगी। जब एक पुरूष किसी स्त्री से प्रेम करता है तो वह उसके स्तनों को प्रेम कर सकता है। लेकिन उन्हें मां नहीं कह सकता। केवल एक छोटा बच्चा ही उन्हें मां कह सकता है। या फिर प्रेम इतना गहन हो कि पति भी बच्चे की तरह हो जाए। तो यह संभव हो सकता है। तब स्त्री पूरी तरह भूल जाती है कि वह केवल एक संगिनी है, वह अपनी प्रेमी की मां बन जाती है। तब बच्चे की आवश्यकता नहीं रह जाती, तब वह मां बन सकती है। और स्तनों के निकट उसके अस्तित्व का केंद्र सक्रिय हो सकता है।
यह विधि कहती है: ‘अनुभव करो कि सृजन के शुद्ध गुण तुम्हारे स्तनों मे प्रवेश करके सूक्ष्म रूप धारण कर रहे है।’
स्त्रैण अस्तित्व की पूरी सृजनात्मकता मातृत्व पर ही आधारित है। इसीलिए तो स्त्रियां अन्य किसी तरह के सृजन में इतनी उत्सुक नहीं होती। पुरूष सर्जक है। स्त्रियां सर्जक नहीं है। न उनके चित्र बनाए है। न महान काव्य रचे है। न कोई बड़ा ग्रंथ लिखा है। न कोई बड़े धर्म बनाए है। वास्तव में उसने कुछ नहीं किया हे। लेकिन पुरूष सृजन किए चला जाता है। वह पागल है। वह आविष्कार कर रहा है, सृजन कर रहा है। भवन निर्माण कर रहा है।
तंत्र कहता है, ऐसा इसलिए है क्योंकि पुरूष नैसर्गिक रूप से सर्जक नहीं है। इसलिए वह अतृप्त और तनाव में रहता है। वह मां बनना चाहता है। वह सर्जक बनना चाहता है। तो वह काव्य का सृजन करता है। वह कई चीजों का सृजन करता है। एक तरह से हव उसकी मां हो जाये। लेकिन स्त्री तनाव रहित होती है। यदि वह मां बन सके तो तृप्त हो जाती है। फिर किसी और चीज में उत्सुक नहीं रहती।
स्त्री कुछ और करने की तभी सोचती है यदि वह मां न बन सके। प्रेम न कर सके, अपनी सृजनात्मकता के शिखर पर न पहूंच सके। तो वास्तव में असृजनात्मक स्त्रियां बन जाती है। कवि, चित्रकार, लेकिन वे सदा दूसरे दर्जे की रहेगी। कभी प्रथम कोटी की नहीं हो सकती। स्त्री के लिए काव्य और चित्रों का सृजन उतना ही असंभव है, जितना पुरूष को बच्चे का सृजन करना। वह मां नहीं बन सकता। वह जैविकीय तल पर असंभव है। और इस कमी को वक अनुभव करता है। इस कमी को पूरा करने के लिए वह कई कार्य करता है। लेकिन कभी भी कोई महान से महान सर्जक भी इतना तृप्त नहीं हो पाया, या कभी कोई विरला ही इतना परितृप्त हो सकता है। जितना कि एक स्त्री मां बनकर हो जाती है।
एक बुद्ध अधिक परितृप्त होता है। क्योंकि वह अपना ही सृजन कर लेता है। वह द्विज हो जाता है। वह स्वयं को दूसरा जन्म दे देता है। नया मनुष्य हो जाता है। अब वह अपनी मां भी हो जाता है, पिता भी हो जाता है। वह पूर्णतया परितृप्त अनुभव करता है।
एक स्त्री अधिक सरलता से तृप्ति अनुभव कर सकती है। उसका सृजनात्मकता स्तनों के आस-पास ही होती है। इसीलिए तो विश्व भर में स्त्रियां अपने स्तनों के बारे में इतनी चिंतित रहती है। जैसे कि उनका पूरा अस्तित्व ही वही केंद्रित हो। वे सदा अपने स्तनों के बारे में इतनी सजग होती है। दिखाए चाहे उघाड़़े पर उनके विषय में चिंतित रहती है। स्तन उनके सबसे गुप्त अंग है, उनका खजाना है, उनके अस्तित्व के मातृत्व के सृजनात्मकता के केंद्र है।
शिव कहते है: ‘अनुभव करो कि सृजन के शुद्ध गुण तुम्हारे स्तनों में प्रवेश करके सूक्ष्म रूप धारण कर रहे हो।’
स्तनों पर अवधान को एकाग्र करो, उन्ही के साथ एक हो जाओ। बाकी सारे शरीर को भूल जाओ। अपनी पूरी चेतना को स्तनों पर ले जाओ। और कई घटनाएं तुम्हारे साथ घटेगी। यदि तुम ऐसा कर सको। यदि पूरी तरह से स्तनों पर अपने अवधान को केंद्रित कर सको, तो सारा शरीर भार-मुक्त हो जाएगा। और एक गहन माधुर्य तुम्हें घेर लेगा। माधुर्य की एक गहन अनुभूति तुम्हारे भीतर बारह चारों और धड़केगी।
जो भी विधियां विकसित की गई है वे करीब-करीब सब पुरूष द्वारा ही विकसित की गई है। तो उनमें ऐसे केंद्रों का उल्लेख होता है जो पुरूष के लिए सरल होते है। जहां ते मैं जानता हूं केवल शिव ने ही कुछ ऐसी विधियां दी है जो मौलिक रूप से स्त्रियों के लिए है। कोई पुरूष इस विधि को नहीं कर सकता। वास्तव में यदि कोई पुरूष अपने स्तनों पर अवधान को केंद्रित करने लगे तो उलझन में पड़ जायेगा।
करके देखो, पाँच मिनट में ही तुम्हारा पसीना बहने लगेगा। और तुम तनाव से भर जाओगे। क्योंकि पुरूष के स्तन ऋणात्मक है, वे तुम्हें नकारात्मकता ही देंगे। तुम्हें कुछ गड़बड़, कुछ अटपटापन महसूस होगा। जैसे शरीर में कोई गड़बड़ हो गई हो।
लेकिन स्त्री के स्तन धनात्मक है। यदि स्त्रियां स्तनों के पास अवधान केंद्रित करें तो बहुत आनंदित अनुभव करेंगी। एक माधुर्य उनके प्राणों में छा जाएगा और उनका शरीर गुरूत्वाकर्षण से मुक्त हो जाएगा। उन्हें इतना हलकापन महसूस होगा जैसे कि वे उड़ सकती है। और इस एकाग्रता से बहुत से परिवर्तन होंगे। तुम अधिक मातृत्व भाव अनुभव करोगी। चाहे तुम मां न बनो
लेकिन स्तनों पर अवधान की यह एकाग्रता बहुत विश्रांत होकर करनी चाहिए, तनाव से भरकर नहीं। यदि तुम तनाव से भर गई तो तुम्हारे और स्तनों के बीच एक विभाजन हो जाएगा। तो विश्रांत होकर उन्हीं में धुल जाओ ओर अनुभव करो कि तुम नहीं केवल स्तन ही बचे है।
यदि पुरूष को यही करना हो तो स्तनों के साथ नहीं काम केंद्र के साथ करना होगा। इसीलिए हर कुंडलिनी योग में पहले चक्र का महत्व है। पुरूष को अपना अवधान जननेंद्रिय की जड़ पर केंद्रित करना होता है। उसकी सृजनात्मकता, उसकी विधायकता वहां पर है। और इसे सदा स्मरण रखो: कभी भी किसी नकारात्मक चीज पर अवधान को केंद्रित मत करो, क्योंकि सभी नकारात्मक चीजें उसके साथ चली आती है। ऐसे ही विधायक के साथ सभी कुछ विधायक चला आता है।
जब स्त्री और पुरूष के दो ध्रुव मिलते है तो पुरूष का ऊपर का भाग ऋणात्मक और नीचे का भाग धनात्मक होता है। जब कि स्त्री में नीचे का भाग ऋणात्मक और ऊपर का भाग धनात्मक होता है। ऋणात्मक और धनात्मक के ये दो ध्रुव मिलते है। तो एक वर्तुल निर्मित हो जाता है। वह वर्तुल बहुत आनंदपूर्ण है, परंतु यह कोई साधारण घटना नहीं है। साधारणतया काम-कृत्य में ये वर्तुल नही बनता। इसीलिए तो तुम काम के प्रति जितने आकर्षित होते हो, उतने ही उस से विकर्षित भी होते हो। उसके लिए तुम कितनी कामना करते हो, कितनी तुम्हें उसकी तलाश होती है। पर जब तुम्हें मिलता है तो तुम निराश हो जाते हो। कुछ भी होता नहीं।
यह वर्तुल केवल तभी संभव है, जब की दोनों शरीर शांति हो। और बिना किसी भय या प्रतिरोध के एक दूसरे के लिए खुले हो। तब मिलन होता है। वह पूर्ण मिलन विद्युत धाराओं का एक मिल कर वर्तुल बन जाता है। जो आनंद का उच्चतम शिखर है।
फिर एक बड़ी अद्भुत घटना घटती है। तंत्र में इसका उल्लेख है, लेकिन तुमने शायद इसके बारे में सुना भी न हो—यह घटना बड़ी अद्भुत है। जब दो प्रेमी वास्तव में मिलते है और एक वर्तुल बन जाते है तो एक बिजली की कौंध जैसी घटना घटती है। एक क्षण के लिए प्रेमी प्रेयसी बन जाता है और प्रेयसी प्रेमी बन जाती है—और अगले ही क्षण प्रेमी फिर प्रेमी बन जाता है। और प्रेयसी फिर प्रेयसी बन जाती है। एक क्षण के लिए पुरूष स्त्री हो जाता है और स्त्री पुरूष हो जाती है। क्योंकि ऊर्जा गति कर रही है। और एक वर्तुल बन गया है।
तो ऐसा होगा कि कुछ मिनट के लिए पुरूष सक्रिय होगा। और फिर वह विश्राम करेगा। और स्त्री सक्रिय हो जाएगी। इसका अर्थ है कि अब पुरूष ऊर्जा स्त्री के शरीर में चली गई है। जब स्त्री सक्रिय होगी तो पुरूष निष्कृय रहेगा। और ऐस चलता रहेगा। साधारण तय तुम स्त्री और पुरूष हो। गहन प्रेम में, गहन संभोग में कुछ क्षण के लिए पुरूष स्त्री हो जाएगा और स्त्री पुरूष हो जाएगी। और यह अनुभव होगा, निश्चित ही अनुभव होगा कि निष्क्रियता बदल रही है।
जीवन में एक लय है, हर चीज में एक लय है। जब तुम श्वास लेते हो श्वास भीतर जाती है, फिर क्षणों के लिए रूक जाती है। उसमें कोई गति नहीं होती। फिर चलती है, बाहर आती है। और फिर रूक जाती है। एक अंतराल पैदा होता है। गति, रुकाव, गति। जब तुम्हारा ह्रदय धड़कता है तो एक धडकन होती है। फिर अंतराल है, फिर धड़कता है, फिर अंतराल है। धड़कन का अर्थ है सक्रियता, अंतराल का अर्थ है निष्क्रियता। धड़कन का अर्थ है पुरूष अंतराल का अर्थ है स्त्री।
जीवन एक लय है। जब पुरूष और स्त्री मिलते है तो एक वर्तुल बन जाता है: दोनों के लिए ही अंतराल होंगे। तुम एक स्त्री हो तो अचानक एक अंतराल होगा और तुम स्त्री नहीं रहोगी पुरूष बन जाओगी। तुम स्त्री से पुरूष से स्त्री बनती रहोगी।
जब यह अंतराल तुम्हें महसूस होगा तो तुम्हें पता चलेगा कि तुम एक वर्तुल बन गए हो। शिव के प्रतीक शिवलिंग में इसी वर्तुल को दिखाया गया है। यह वर्तुल देवी की योनि और शिव के लिंग से दिखाया गया है। यह एक वर्तुल है। यह दो उच्च तल पर ऊर्जा के मिलन की शिखर घटना है।
यह विधि अच्छी रहेगी: ‘अनुभव करो कि सृजन के शुद्ध गुण तुम्हारे स्तनों में प्रवेश करके सूक्ष्म धारण कर रहे हे।‘
विश्राम हो जाओ। स्तनों में प्रवेश करो और अपने स्तनों को ही अपना पूरा अस्तित्व हो जाने दो। पूरे शरीर को स्तनों के होने के लिए मात्र एक परिस्थिति बन जाने दो, तुम्हारा पूरा शरीर गौण हो जाए, स्तन महत्वपूर्ण हो जाएं। और तुम उनमें ही विश्राम करो, प्रवेश करो। तब तुम्हारी सृजनात्मकता जगेगी। स्त्रैण सृजनात्मकता तभी जगती है जब स्तन सक्रिय हो जाते है। स्तनों में डूब जाओ। और तुम्हें अनुभव होगा कि तुम्हारी सृजनात्मकता जाग रही है।
सृजनात्मकता के जागने का अर्थ है? तुम्हें बहुत कुछ दिखने लगेगा। बुद्ध और महावीर ने अपने पूर्व जन्मों में कहा था कि जब वे पैदा होंगे तो उनकी माताओं को कुछ विशेष दृश्य, कुछ विशेष स्वप्न दिखाई पड़ेंगे। उन कुछ विशेष स्वप्नों के कारण ही बताया जा सकता था कि बुद्ध पैदा होने वाले है। सोलह स्वप्न एक दूसरे का अनुसरण करते हुए आएँगे।
इस पर मैं प्रयोग करता रहा हूं। यदि कोई स्त्री वास्तव में ही अपने स्तनों में विलीन हो जाती है तो एक विशेष क्रम में कुछ विशेष दृश्य दिखाई देंगे। कुछ चीजें उसे दिखाई पड़ने लगेंगी। अलग-अलग स्त्रियों के लिए अलग-अलग चीजें होंगी, लेकिन कुछ मैं तुम्हें बताता हूं।
एक तो कोई आकृति, मानव आकृति दिखाई पड़ेगी। और यदि स्त्री बच्चे को जन्म देने वाली है तो बच्चे की आकृति नजर आएगी। यदि स्तनों में स्त्री पूरी तरह विलीन हो गई है तो उसे यह भी दिखाई देगा कि किसी तरह से बच्चे को वह जन्म देने वाली है। उसकी आकृति नजर आएगी। यदि वह गर्भवती है तो आकृति और भी स्पष्ट होगी। यदि अभी वह मां नहीं बनने वली है और गर्भवती नहीं है, तो उसके आस-पास कोई अज्ञात सुगंध छानें लगेगी। स्तन ऐसी मधुर सुगंधों के स्त्रोत बन सकते है। जो कि इस संसार की नहीं है। जो रसायन से नहीं बनाई जा सकती। मधुर स्वर, लयबद्ध ध्वनियां। सुनाई देंगी। सृजन के सारे आयाम बहुत से नए रूपों में प्रकट हो सके है। महान कवियों और चित्रकारों को जो घटित हुआ है वह उस स्त्री को हो सकता है। यदि वह अपने स्तनों में डूब जाए।
और यह इतना वास्तविक होगा कि उसके पूरे व्यक्तित्व को बदल देगा। वह स्त्री और ही हो जाएगी। और यदि ये अनुभव उसे होते रहते है तो धीरे-धीरे वे खो जाएंगे और एक क्षण आएगा जब शून्यता घटित होगी। वह शून्यता ध्यान की परम स्थिति है।
तो इसको स्मरण रखो; यदि तुम स्त्री हो तो अपने शिव नेत्र पर एकाग्रता मत करो। तुम्हारे लिए स्तनों पर, ठीक दोनों स्तनों के चुचुओं पर अवधान को केंद्रित करना बेहतर रहेगा। और दूसरी बात: एक ही स्तन पर अवधान केंद्रित मत करो। एक साथ दोनों स्तनों पर करो। यदि तुम एक स्तन पर अवधान को केंद्रित करोगी तो तत्क्षण तुम्हारा शरीर व्यथित हो जाएगा। एक ही स्तन पर एकाग्रता होने पर पक्षाघात भी हो सकता है।
तो दोनों पर एक साथ ही अवधान को केंद्रित करो, उसमे विलीन हो जाओ, और जा हो, उसे होने दो। बस साक्षी बनी रहो ओर किसी भी लय से मत जुड़ों,क्योंकि हर लय बड़ी सुंदर, स्वर्ग तुल्य मालूम होगी। उनसे मत जुड़ों। उनको देखती रहो और साक्षी बनी रहो। एक क्षण आएगा जब वह समाप्त होने लगेंगी। और एक शून्यता घटित होती हे। कुछ नहीं बचता। बस खुला आकाश रह जाता है। और स्तन खो जाते है। तब तुम बोधिवृक्ष के नीचे हो।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग—पांच,
प्रवचन-67
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