*हर हृदय में अपूर्व सुगंध भरी है; जरा संबंध जोड़ने की बात है। तुम कस्तूरी मृग हो—कस्तूरा हो! भागते फिरते दूर—दूर और जिस अंध की तलाश कर रहे हो, वह गंध तुम्हारे भीतर से ही उठ रही है। उस कस्तूरी के तुम मालिक हो। कस्तूरी कुंडल बसै!...तुम्हारे भीतर बसी है*—कोई जगाए, कोई हिलाए, कोई तुम्हें सचेत करे। और जो भी तुम्हें सचेत करेगा वह तुम्हें नाराज करेगा। इतना स्मरण रहे तो सदगुरु मिल जाएगा।
इतना बोध रहे कि *जो तुम्हें जगाएगा वह तुम्हें जरूर नाराज करेगा, तो सदगुरु को खोजना कठिन नहीं होगा।*
जो तुम्हें सांत्वना देते हो और तुम्हारे घावों को मलहम—पट्टी करते हों और तुम्हारे अंधेरे को छिपाते हों और तुम्हारे ऊपर रंग पोत देते हों, उनसे सावधान रहना। *सांत्वना जहां से मिलती हो समझ लेना कि वहां सदगुरु नहीं है*
सदगुरु तो झकझोरेगा; उखाड़ देगा वहां से जहां तुम हो, क्योंकि नई तुम्हें भूमि देनी है और नया तुम्हें आकाश देना है।
सदगुरु तो झकझोरेगा; उखाड़ देगा वहां से जहां तुम हो, क्योंकि नई तुम्हें भूमि देनी है और नया तुम्हें आकाश देना है।
*सोता था बहु जन्म का, सतगुरु दिया जगाय।*
*जन दरिया गुरु शब्द सौं, सब दुख गए बिलाय।।*
और दरिया कहते हैं: मैं चमत्कृत हूं कि जागते ही सारे दुख विलीन हो गए! मैं तो सोचता था एक—एक दुख का इलाज करना होगा। क्रोध है तो इलाज करना होगा। लाभ है तो इलाज करना होगा। मोह है तो इलाज करना होगा। अहंकार है, यह है, वह है...हजार रोग हैं। व्याधियां ही व्याधियां हैं। इतनी व्याधियों के लिए इतनी ही औषधियां खोजनी होंगी। लेकिन बस एक औषधि, और सारी व्याधिया मिट गई। क्योंकि जितने रोज हैं वे सिर्फ हमारे स्वप्न हैं; उनकी कोई सचाई नहीं है।
पापी पाप का स्वप्न देख रहा है, पुण्यात्मा पुण्य का स्वप्न देख रहा। जागा हुआ न तो पापी होता है न पुण्यात्मा होता है। जागा हुआ तो सिर्फ जागा हुआ होता है; उसका कोई स्वप्न नहीं होता। चोर चोर होने का स्वप्न देख रहा है और तुम्हारे तथाकथित साधु, साधु होने का सपना देख रहे हैं।
*जागा हुआ न तो असाधु होता न तो साधु होता, बस जागा हुआ होता है। और जागते ही सारे रोग मिट जाते हैं। एक समाधि सारी व्याधियों को ले जाती है।*
*➡अमी झरत बिसगत कंवल-प्र-01*
*ओशो *
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