अलहिल्लज मंसूर एक प्रसिद्ध सूफी हुआ, जिसका अंग-अंग काट दिया मुसलमानों ने, क्योंकि वह ऐसी बातें कह रहा था जो कुरान के खिलाफ पड़ती थीं। धर्म के खिलाफ नहीं। मगर किताबें बड़ी छोटी हैं, उनमें धर्म समाता नहीं। अलहिल्लज मंसूर की एक ही आवाज थी--- अनलहंक, अहं ब्रह्मास्मि! और यह मुसलमानों के लिए बरदाश्त के बाहर था कि कोई अपने को ईश्वर कहे। उन्होंने उसे जिस तरह सताकर मारा है, उस तरह दुनिया में कोई आदमी कभी नहीं मारा गया। उस दिन दो धटनाएं घटी। मंसूर का गुरू जुन्नैद, सिर्फ गुरू ही रहा होगा। गुरू जो कि दर्जनों में खरीदे जा सकते हैं, हर जगह मौजूद हैं, गांव-गांव में मौजूद हैं। कुछ भी कान में फूंक देते हैं और गुरू बन जाते हैं।
जुन्नैद उसको कह रहा था कि देख, भला तेरा अनुभव सच हो कि तू ईश्वर है, मगर कह मत। अलहिल्लज कहता कि यह मेरे बस के बाहर है। क्योंकि जब मैं मस्ती मे छाता हूं और जब मौज की घटनाएँ मुझे घेर लेती है, तब न तुम मुझे याद रहते हो न मुसलमान याद रहते हैं, न दुनिया याद रहती हैं, न जीवन न मौत। तब मैं अनलहक का उदघोष करता हूं ऐसा नहीं है। उदघोष हो जाता है। मेरी सांस-सांस में वह अनुभव व्याप्त है।
अंततः वह पकड़ा गया। जिस दिन वह पकड़ा गया, वह अपनी ही परिक्रमा कर रहा था। लोगों ने पूछा, यह तुम क्या कर रहे हो? ये दिन तो काबा जाने के दिन हैं। और जाकर काबा के पवित्र पत्थर के चक्कर लगाने के दिन हैं। तुम खड़े होकर खुद ही अपने चक्कर दे रहे हो? मंसूर ने कहा, कोई पत्थर अहं ब्रह्मास्मि का अनुभव नहीं कर सकता, जो मैं अनुभव करता हूं। अपना चक्कर दे लिया, हज हो गईं। बिना कहीं गए, घर बैठे अपने ही आंगन में ईश्वर को बुला लिया। ऐसी सच्ची बातें कहने वाले आदमी को हमेशा मुसीबत में पड़ जाना है। उसे सुली पर लटकाया गया, पत्थर फेंके गए, वह हंसता रहा। जुन्नैद भी भीड़ में खड़ा था। जुन्नैद डर रहा था कि अगर उसने कुछ भी न फेंका तो भीड़ समझेगी कि वह मंसूर के खिलाफ नहीं है। तो वह एक फूल छिपा लाया था। पत्थर तो वह मार नहीं सकता था। वह जानता था कि मंसूर जो भी कह रहा है, उसकी अंतर-अनुभूति है। हम नहीं समझ पा रहे हैं; यह हमारी भूल है। उसने फूल फेंककर मारा।
उस भीड़ मे जहां पत्थर पड़ रहे थे...जब तक पत्थर पड़ते रहे, मंसूर हंसता रहा। और जैसे ही फूल उसे लगा, उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे! किसी ने पूछा कि क्यों पत्थर तुम्हें हंसते हैं, फूल तुम्हें रूलाते हैं? मंसूर ने कहा, पत्थर जिन्होंने मारे थे वे अनजान थे। फूल जिसने मारा है, उसे वहम है कि वह जानता है। उस पर मुझे दया आती है। मेरे पास उसके लिए देने को आंसूओं के सिवाय और कुछ भी नहीं है। और जब उसके पैर काटे गए और हाथ काटे गए, तब उसने आकाश की ओर देखा और जोर से खिलखिलाकर हंसा। लहूलुहान शरीर, लाखों की भीड़। लोगों ने पूछा, तुम क्यों हंस रहे हो? तो उसने कहा, मै ईश्वर को कह रहा हूं कि क्या खेल दिखा रहे हो! जो नहीं मर सकता उसे मारना का इतना आयोजन...। नाहक इतने लोगों का समय खराब कर रहे हो। और इसलिए हंस रहा हूं कि तुम जिसे मार रहे हो, वह मैं नहीं हूं। और जो मैं हूं, उसे तुम छू भी नहीं सकते। तुम्हारी तलवारें उसे नहीं काट सकती। और तुम्हारी आगे उसे नहीं जला सकती। एक बार अपने जीवन की धारा से थोड़ा सा परिचय हो जाए, मौत का भय मिट जाता है।
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ओशो, कोंपलें फिर फूट आई
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