*हमें अक्सर अनुभव होता है कि हम अपना दुख स्वयं निर्मित करते हैं। इसके बावजूद हम दुख निर्मित करना क्यों जारी रखते हैं? और व्यक्ति कब और कैसे अपना दुःख निर्मित करना बंद करता है?*

पहली और सबसे बुनियादी बात समझने की यह है कि तुम कहते तो हो कि ‘हमें अक्सर अनुभव होता है कि हम अपना दुख स्वयं निर्मित करते हैं’; लेकिन ऐसा है नहीं। तुम वस्तुत: कभी अनुभव नहीं करते कि अपने दुखों के तुम स्वयं ही स्रष्टा हो। तुम ऐसा सोचते हो, क्योंकि तुम्हें यह सिखाया गया है। सदियों से गुरु और शिक्षक कहते आ रहे हैं कि तुम ही अपने दुखों के निर्माता हो, कोई दूसरा नहीं। तुमने ये बातें सुनी हैं, तुमने ये बातें पढ़ी हैं। ये बातें तुम्हारी मांस मज्जा में समा गई हैं, ये बातें तुम्हारा अचेतन संस्कार बन गई हैं। इसलिए तुम कभी कभी तोते की तरह दोहरा देते हो कि हम अपना दुख स्वयं निर्मित करते हैं। लेकिन यह तुम्हारा अपना अनुभव नहीं है, यह तुम्हारा अपना बोध नहीं है।

क्योंकि अगर यह तुम्हारा अपना बोध हो तो दूसरी बात असंभव है। तब तुम नहीं कह सकते कि ‘इसके बावजूद हम क्यों दुख निर्मित करना जारी रखते हैं?’ अगर तुम वास्तव में यह अनुभव करते हो तो तुम जब चाहो दुख निर्मित करना बंद कर दे सकते हो। हा, अगर तुम दुख निर्मित करना चाहते हो, अगर तुम उसमें सुख लेते हो, अगर तुम आत्म पीड़क हो, तो बात दूसरी है, तब सब ठीक है। अगर तुम कहते हो कि मैं अपने दुख में मजा लेता हूं तो फिर ठीक है; फिर तुम दुख पैदा करते रहो। लेकिन अगर तुम कहते हो कि मैं दुखी हूं और मैं इसके पार जाना चाहता हूं मैं एक क्षण दुखी नहीं रहना चाहता हूं, और मैं समझता हूं कि मैं ही अपने दुखों का निर्माता हूं तो तुम गलत कहते हो। तुम समझ नहीं रहे हो कि तुम क्या कह रहे हो।

सुकरात ने कहा है कि ज्ञान पुण्य है। और पिछले दो हजार वर्षों से बड़ा विवाद रहा है कि सुकरात सही है या गलत ज्ञान पुण्य है। सुकरात का कहना है कि एक बार तुमने कोई चीज जान ली, फिर तुम उसके विपरीत नहीं कर सकते। अगर तुम जानते हो कि क्रोध दुख है तो तुम क्रोध नहीं कर सकते। जब सुकरात कहता है कि ज्ञान पुण्य है तो उसका यही अर्थ है। तुम यह नहीं कह सकते कि मैं जानता हूं कि क्रोध बुरा है तो भी मैं क्रोध करता हूं। अब मैं इसके लिए क्या करूं? सुकरात कहेगा कि तुम्हारी पहली बात गलत है; तुम नहीं जानते हो कि क्रोध बुरा है। और यही कारण है कि तुम क्रोध करते हो। अगर तुम जानते हो तो फिर तुम क्रोध नहीं कर सकते। तुम अपने ज्ञान के विपरीत कैसे जा सकते हो?

मैं जानता हूं कि अगर मैं आग में हाथ डालूंगा तो जलूंगा, अगर मैं यह जानता हूं तो मैं आग में हाथ नहीं डालूंगा। लेकिन अगर यह बात किसी और ने मुझसे कही है, अगर मैंने यह बात परंपरा से सुनी है, अगर मैंने शास्त्रों में पढ़ा है कि आग जलाती है और मैंने खुद आग को नहीं जाना है, या आग से जलने जैसा कोई अनुभव नहीं जाना है, तो ही मैं आग में हाथ डाल सकता हूं। और वह भी सिर्फ एक बार।

क्या तुम कल्पना भी कर सकते हो कि तुमने आग में हाथ डाला और हाथ जला और तुम्हें पीड़ा हुई; और फिर तुम जाकर पूछते हो कि मैं क्या करूं! मैं जानता हूं कि आग जलाती है, लेकिन इसके बावजूद मैं आग में हाथ डालता रहता हूं!

कौन विश्वास करेगा कि तुम जानते हो? और यह किस तरह का ज्ञान है? अगर तुम्हारा जलने और पीड़ित होने का अपना अनुभव तुम्हें पुन: आग में हाथ डालने से नहीं रोक सकता है तो फिर कोई भी चीज तुम्हें नहीं रोक सकती। तब फिर कोई संभावना नहीं है, क्योंकि अंतिम उपाय भी चूक गया।

तंत्र सूत्र

ओशो

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