एक आदमी को फांसी की सजा हुई।
बरसात के दिन, बड़ा अंधड़—तूफान
और पानी गिर रहा है धुआंधार आकाश से।
और जेलखाने से जहां फांसी लगनी थी,
कोई पांच मील का रास्ता पैदल चल कर सफर करना।
तो सिपाही और कप्तान और जल्लाद और सारे लोग,
जज, लेकर चले जंगल की तरफ और

वह आदमी गीत गुनगुनाता चला।
आखिर मजिस्ट्रेट से न रहा गया।
उसने कहा कि सुन भाई,
और सब तकलीफ हम सह लेंगे,
पानी गिर रहा है, बिजली चमक रही है,
ठिठुर रहे हैं ठंड में, भीग गए हैं बिलकुल,
घर जाकर फ्लू चढ़ेगा कि डेंगू बुखार चढ़ेगा
कि एनच्छंजा हो जाएगा— क्या होगा पता नहीं!
और ऊपर से तू गाना गा रहा है!

उसने कहा गाना मैं क्यों न गाऊं!
क्योंकि मुझे तो सिर्फ वहीं तक जाना है,
तुम्हें लौट कर भी आना पड़ेगा।
याद रखो बच्चों मेरा पलड़ा भारी है!
हम तो गए और खत्म हुए। अपनी सोचो।

यहां जिंदगी में रखा क्या है? उस कैदी ने कहा :
हमें ऐसा कौन सा सुख मिल रहा था
जिसके लिए हम रोएं? अरे जंजीरों में पड़े थे,
कालकोठरी में पड़े थे,

कम से कम खुले आकाश के नीचे तो हैं!
और फिर डर क्या,
जब मौत ही आ रही तो अब डर क्या?
अब न हमें डेंगू का डर है, न फ्लू का डर है,
किसी का डर ही नहीं है।
अब इस मौके पर तो हम गाना गा लें।

जो भाग रहा है जिंदगी से,
वह लगता है बहुत कठिन काम कर रहा है—
ऐसा तुम्हें समझाया गया है कि
वह बड़ा दुर्लभ काम कर रहा है!
वह कोई दुर्लभ काम नहीं कर रहा है,
सिर्फ कमजोर है, कायर है, भीरु है।

मैं तुमसे कह रहा हूं
जिंदगी की चुनौतियों से भागना नहीं है—जीना है—
यहीं बाजार में, दुकान में; काम करते हुए,
पत्नी, बच्चे, पति…। और यहीं इस ढंग से जीना है
जैसे जल में कमल।
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मन ही पूजा मन ही धूप(संत रैदास-वाणी), प्रवचन-८, ओशो

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